ना वक़्त , ना जगह, कुछ भी नहीं है हमारा,
फिर भी कसक के मंज़र दिल से निकलते नहीं।
यूँ खिड़कियों के कांच से तकते रहते हैं, वो हमें, हम उन्हें ,
फिर भी दरवाज़े खुलते नहीं,
वो कसक की आहें मिल जाती हैं दबे पाँव ,
कान लगें हैं जो दोनों के ही, उन आहटों के लिए,
हर कदम हमारा भी ताड़ लेते हैं वो,
फिर भी दरवाज़े खुलते नहीं,
आँखें तलाश कर लेती हैं , आँखों को भीड़ में,
मिलने से शायद डरती हैं ज़रा .
ना पढ़ ले कहीं , उनकी आँखों की हम ज़ुबां ,
कि वो बेरुखी के परदे, आँखों से हटते नहीं .
क्या करूँ मगर, मेरे ख्वाबों को नहीं मेरे असमंजस की क़द्र ,
कि ये दिल के धागे यूँ अनबन से कटते नहीं .
फिर भी कसक के मंज़र दिल से निकलते नहीं।
यूँ खिड़कियों के कांच से तकते रहते हैं, वो हमें, हम उन्हें ,
फिर भी दरवाज़े खुलते नहीं,
वो कसक की आहें मिल जाती हैं दबे पाँव ,
कान लगें हैं जो दोनों के ही, उन आहटों के लिए,
हर कदम हमारा भी ताड़ लेते हैं वो,
फिर भी दरवाज़े खुलते नहीं,
आँखें तलाश कर लेती हैं , आँखों को भीड़ में,
मिलने से शायद डरती हैं ज़रा .
ना पढ़ ले कहीं , उनकी आँखों की हम ज़ुबां ,
कि वो बेरुखी के परदे, आँखों से हटते नहीं .
क्या करूँ मगर, मेरे ख्वाबों को नहीं मेरे असमंजस की क़द्र ,
कि ये दिल के धागे यूँ अनबन से कटते नहीं .