उनकी बाहों के दायरे में आने के बाद,
लगता है की जैसे सालों तक उस बंजर रेगिस्तान की तपती हुई ज़मीं पे चलकर ,
में आखिर घर आई हूँ आज
इस मुरझाये , नंगे दरख़्त पर,
फिर कोई कोंपल खिली है आज,
वो उनका मेरे माथे को चूमना,
वो लिपट जाना मुझसे,
जैसे उनकी दुनिया का सबसे नायाब तोहफा हूँ में,
आज शिद्दत बाद खुद की हदों को लांघा है मैंने
जो खुद को वो महसूस करने दिया
की वो इक पल उनकी गर्माहट में दुनिया से महफूज़ हूँ में ..
आज जब ज़ख्म ताज़े करने बैठी तो जाना,
वक़्त की खिसकती रेत, और गम की सिसकियों में,
कितना कुछ खो चुकी में,
और कितना कुछ खोना बाकी है अभी,
वो कहते हैं कि पास रखती हूँ लेकिन पास आने देती नहीं उन्हें
कैसे समझाउं उन्हें कि प्यार कि आदत ना पड़ जाये मुझे,
यहाँ महखाने के छलकते जामों के बीच भी,
हमेशा से खाली ये पैमाना है,
और ठिठुरती हुई ठण्ड सी सुनसान, अंतहीन इस सड़क पर,
मुझे यूँ अकेले ही जाना है......................
No comments:
Post a Comment