Saturday, January 28, 2012

कुछ अधूरा सा सपना चुभता है मेरे जहन में ................. इस कविता की तरह...

आज जब हाथों की लकीरों को देखती हूँ,
उनका वो चाँद कुछ अधूरा सा है

आज यूँ तुमसे दूर होने के बाद भी,
तुम्हारा इन लकीरों में नाम कुछ पूरा सा है..

रात को कांच से छूकर देखा था मैंने,
वो लाल खून कुछ सूखा सा है....

उस अंगूठी का निशान गया नहीं अभी,
पिघलते लोहे सा मेरी रगों में उतरा सा है..

उन लम्हों को नसीब से छीनने की कोशिश की थी मैंने,
लेकिन
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